३४० वृहदारण्यकोपनिपद् स० वेद, यस्य, अग्निः, शरीरम् , यः, अग्निम् , अन्तरः, यम- यति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ।। अन्वय-पदार्थ। यःो । अग्नी अग्नि में । तिष्ठन् रहता है। + च% और I + या जो। अग्ने:-मग्नि के । अन्तरः-भीतर स्थित है । यम्-जिसको । अग्निाअग्नि । न-नहीं । बेदम्मानता है। यस्य:जिसका । शरीरम्-शरीर । अग्नि:-शग्नि है । यः- जो । अन्तर:- अग्नि के भीतर रहकर । अग्निम् अग्नि को। यमयति शासन करता है। एपःवही । ते तेरा । अमृतः अविनाशी । श्रात्मा आत्मा । अन्तर्यामी-यन्तर्यामी है। भावार्थ। हे गौतम! और भी सुनो, जो अग्नि के अन्दर और बाहर स्थित है, जो अग्नि का शरीर है, जिसको अग्नि नहीं जानता है, और जो अग्नि को जानता है, और जो अग्नि के बाहर भीतर रहकर अग्नि को शासन करता है, जो अमृतरूप आपका आत्मा है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ ५ ॥ n . योऽन्तरिने तिष्टनन्तरिक्षादन्तरो यमन्तरिनं न वेद यस्यान्तरिक्ष शरीरं योऽन्तरिक्षमन्तरो यमयत्येष त श्रात्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ पदच्छेदः। यः, अन्तरिक्ष, तिष्ठन् , अन्तरिक्षात् , अन्तरः, यम्, अन्तरिक्षम् , न, वेद, यस्य, अन्तरिक्षम् , शरीरम् , यः, .
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