पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३५३

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अध्याय ३ ब्राह्मण ७

. - पदच्छेदः। यः, अप्सु, तिष्ठन्, अद्भयः, अन्तरः, यम् , आपः, न, विदुः, यस्य, श्रापः, शरीरम् , यः, आपः, अन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ।। अन्वय-पदार्थ। यः गो। असु-जल में । तिष्ठन् रहता है । + च-और अद्भया जल के । अन्तर:बाहर भी स्थित है । यम्-जिसको । आपः-जल । न-नहीं । चिदु: मानते हैं | + च और । यस्य-जिसका । शरीरम्-शरीर । आपः-जल है। यःो। अन्तर:-जल के अभ्यन्तर रहकर । श्रापाजल को । यमयति- स्त्र व्यापार में लगाता है। एषःवहीं । ते-तेरा । अमृत: अवि- नाशो । आत्मा-प्रारमा । अन्तर्यामी अन्तर्यामी है। भावार्थ। हे गौतम ! जो जल में रहता है, और जो जल के बाहर भी है, जिसको जल नहीं जानता है, और जिसका शरीर जल है, और जो जल के बाहर भीतर रहकर उसको शासन करता है, वही तुम्हारा आत्मा है, वही अविनाशी है, वहीं निर्विकार है, यही वह अन्तर्यामी है ॥४॥ योग्नौ तिष्ठन्नग्नेरन्तरो यमग्निर्न वेद यस्याग्निः शरीरं योऽग्निमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ पदच्छेदः। यः, अग्नी, तिष्ठन् , अग्नेः, अन्तरः, यम् , अग्निः; न, ..