अध्याय ३ ब्राह्मण ७ ३२९ है, हे याज्ञवल्क्य ! वह नक्षत्रलोक किसमें ओत प्रोत है, हे गार्गि ! वह नक्षत्रलोक देवलोक में ओत प्रोत है, है याज्ञ- वल्क्य ! वह देवलोक किसमें ओत प्रोत है, हे गार्गि ! वह देवलोक इन्द्रलोक में ओत प्रोत है, हे याज्ञवल्क्य ! वह इन्द्रलोक किसमें ओत प्रोत है, हे गार्गि ! वह इन्द्रलोक प्रजापतिलोक में श्रोत प्रोत है, हे याज्ञवल्क्य ! वह प्रजापतिलोक किसमें ओत प्रोत है, हे गार्गि ! वह प्रजा- पतिलोक ब्रह्मलोक में श्रोत प्रोत है, हे याज्ञवल्क्य ! वह ब्रह्मलोक किसमें ओत प्रोत है, यह सुन कर याज्ञवल्क्य महा- रान बोले कि, हे गार्गि ! तू अतिप्रश्न करती है, ब्रह्म- वेत्ताओं से अतिप्रश्न करना उचित नहीं है, यदि तू अति- प्रश्न करेगी तो तेरा मस्तक तेरे धड़ से गिर जायगा, हे गार्गि ! ब्रह्मलोक से परे कोई लोक नहीं है, सबका आधार ब्रह्म है । याज्ञवल्क्य से ऐसा उत्तर पाकर गार्गी चुप हो गई ॥ १॥ इति षष्ठं ब्राह्मणम् ॥ ६ ॥ अथ सप्तमं ब्राह्मणम् । मन्त्रः १ अथ हैनमुद्दालक आरुणिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच मद्रेष्ववसाम पतञ्चलस्य काप्यस्य गृहेषु यज्ञ- मधीयानास्तस्यासीद्भार्या गन्धर्वगृहीता गन्धर्वगृहीता तमपृच्छाम कोऽसीति सोऽब्रवीत्कवन्ध आथर्वण इति सोऽब्रवीत्
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