कर ३२२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० भिक्षाचर्यम्-भिरायत को । चरन्ति करते हैं। या पुषणा- जो पुत्र की इच्छा है। सा-वही। हि एय-निश्चय करके वित्तपणा- दृश्य की इच्छा है। साम्यही । लोकैपणा लोक ही इच्छा है। उभे ये दोनों निकृष्ट । एपण इच्छायें एक दूसरे के बाद । एव भवतः अवश्य होती है। तन्मात्-इस लिये । ब्राह्मण: ब्राह्मण । पाण्डित्यम्-शाससम्बन्धीज्ञान को । निर्विधभ्याग । वाल्येन-ज्ञान विज्ञान शक्ति के प्राधिन होकर । तिष्ठासेत् रहने की इच्छा करे। तत्पश्चात् इसके पीछे । वाल्यम्-ज्ञान विज्ञान । च-ौर । पाण्डित्यम्-शामीय ज्ञान को । निर्विद्य-त्याग करके । साम्बद मामए । मुनिः मनम. शील मुनि । भवति होता है । च पुनः मोर फिर । अमानम् च मौनम्-ज्ञान, विज्ञान शोर मननवृति को। निर्विद्य-त्याग करके । ब्राह्मणावलपिन् । भवति होता है। सा-वह । ब्राह्मण घामण । येन-जिल । कन-किसी साधन करके । स्यात्-हो। तेन-उसी साधन करके । ईशः ऐसा कहे हुये प्रकार वएवेत्ता । स्यात्-होता है। अतः इसलिये। अन्यत्-और सब साधन । पातम्-दुःखरूप है। ततः - याज्ञवल्क्य महाराज से उत्तर पाने के पीछे । कोपीतकेया कुपीतक का पुत्र । कहोला कहोल । उपरराम-उपरत होता भया ! भावार्थ। जब चाक्रायण उपस्त चुर होगया, तदनन्तर कहोल ब्राह्मण याज्ञवल्क्य से प्रश्न करने लगा यह कहता हुआ कि, हे याज्ञवल्क्य ! जो ब्रह्म साक्षात् आत्मा के नाम से पुकारा जाता है, और जो सब प्राणियों के अभ्यन्तर में स्थित है, उस ब्रह्म के विषय में मैं आपका व्याख्यान सुनना
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