अध्याय ३ ब्राह्मण ५ दर्शनशक्ति अपने सामने के पदार्थो को देखती है उसे अपने पीछे स्थित हुई शक्ति को वइ दर्शनशक्ति नहीं देख सकती है, इसी प्रकार हे उपस्त ! जो श्रवणशक्ति का श्रोता है उसको तु नहीं सुन सकता है, अर्थात् जिस शक्ति करके श्रवणशक्ति वाह्य वस्तु के शब्दों को सुनती है उस शक्ति को श्रवणशक्ति नहीं सुन सक्ती है, हे उपस्त ! मननशक्ति के मन्ता को तू मनन नहीं कर सक्ता है, अर्थात् जिस शक्ति करके मन मनन करता है उस शक्ति को मननशक्ति मनन नहीं कर सक्ती है, हे उपस्त ! विज्ञानशक्ति के विज्ञाता को तुम नहीं जान सकते हो, अर्थात् हे उषस्त ! उस शक्ति को विज्ञान शक्ति नहीं जान सकती है जो दृष्टि का द्रष्टा है, श्रुति का श्रोता है, मति का मन्ता है, विज्ञप्ति का विज्ञाता है, वही तेरा आत्मा है, वही सब के अन्दर विराजमान हैं इस आत्मविज्ञान से अतिरिक्त जो वस्तु है, वह दुःखमय है, ऐसा सुन कर चक्र का पुत्र उपस्त चुर होगया ॥२॥ इति चतुर्थ ब्राह्मणम् ॥ ४ ॥ अथ पञ्चमं ब्राह्मणम् । मन्त्रः १ अथ ईनं कहोलः कौपीतकेयः पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच यदेव साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्त- रस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येप त आत्मा सर्वान्तरः। कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो योऽशनायापिपासे शोक मोह
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