बृहदारण्यकोपनिषद् स० शक्ति के । द्रष्टारम् द्रष्टा को । न-नहीं । पश्या-त् देष सत्रा है। श्रुतेः श्रवणशनि के श्रोतारम् सुननेवालेको । न शृणुयाः- तू नहीं सुन सका है। मतेः मननशग्नि के । मन्तारम्-मनन करनेवाले को । न मन्वीथाःनहीं तू मनन कर सका है। च- और । विज्ञाते-विज्ञानशग्नि के । विज्ञातारम्-विज्ञाता को। न विजानीयानहीं तु जान सका है। एपः यही । तम्तरा। श्रात्मा-प्रात्मा । सर्वान्तर:सर्वान्तर्यामी है। अत: इससे । अन्यत्-और सघ । श्रार्तम्-दुःखरूप है । हय । ततः उत्तर पाने के पीछे । चाकायणः-चक्र का पुत्र । उपस्त:- उपस्त । उपरराम-उपरत होता भया । भावार्थ। याज्ञवल्क्य के सन्तुष्ट न होकर उपस्त फिर प्रश्न करता है, हे याज्ञवल्क्य ! आपने ऐसा कहा था कि मैं श्रात्मा को ऐसा स्पष्ट जानता हूं जैसे कोई कई कि यह गौ है, यह घोड़ा है, परन्तु आप ऐसा नहीं दिखाते हैं, अब आप आत्मा को प्रत्यक्ष करके बतायें, मैं पुनः श्राप से पूछता हूं, जो सबका आत्मा है, जो सत्र के मध्य में विराज- मान है, उसे अच्छी तरह समझा कर बतायें, ऐसा सुन कर याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं, हे उपस्त! जो अात्मा सत्रके अन्दर विराजमान है, वहीं तेरा अात्मा है, वह दोनों एकड़ी हैं,भेद आत्मा में नहीं है केवल शरीरों में हैं। फिर उपस्त प्रश्न करता है वह कौन सा आत्मा है ? जो सर्वन्तर्यामी है, उपस्त ऋपि के पुर्वोक्त प्रश्न को सुन कर याज्ञवल्क्य और रीति से कहते हैं, हे उपस्त ! सुन, दर्शनशक्ति के द्रष्टा को तू गौ अश्वा- दिक की तरह नहीं देख सक्ता है, यानी जिस शक्ति करके उत्तर को पाकर,
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