३०४ बृहदारण्यकोपनिपद् स० अनन्तम्-निस्य ब्रह्मा । लोकम् लोक को। जयतिगीतता है यानी प्राप्त होना है। भावार्थ। आर्तभाग सम्बोधन करके फिर पूछता है कि हे याज्ञ- वल्क्य ! जब ज्ञानी पुरुप मर जाता है, तब क्या छोड़ जाता है ? इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि अपने पीछे अपना नाम छोड़ जाता है, यानी जो जो श्रेष्ट कार्य करता है जिसके कारण वह प्रसिद्ध होजाता है, उस अपने नाम को छोड़ जाता है, जैसे पाणिनि ऋषि की बनाई अष्टाध्यायी के पठन पाठन का प्रचार रहने से पाणिनि का नाम अभीतक चला जाता है, इसी प्रकार ज्ञानी पुरुप के मरने के पीछे उसका नाम बना रहता है, चूंकि नाम अनन्त हैं और लोक भी अनन्त हैं, और उनके अभिमानी देवता भी अनन्त हैं, इसलिये वह विद्वान् जिसने अनेक शुभ कार्यों करके अनेक नाम अपने पीछे छोड़े हैं, उन नामों करके अनेक देवताओं के लोकों के अविनाशी लोक को वह जीतता है यानी प्राप्त होता है ॥ १२ ॥ मन्त्रः १३ याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रास्य पुरुषस्य मृतस्याग्नि वागप्येति वातं प्राणश्चक्षुरादित्यं मनश्चन्द्र दिशः श्रोत्रं पृथिवी शरीरमाकाशमात्मौपधीर्लोमानि वनस्प- तीन्केशा अप्सु लोहितं च रेतश्च निधीयते कायं तदा पुरुपो भवतीत्याहर सोम्य हस्तमा-भागावामेवैतस्य
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