३.०० बृहदारण्यकोपनिषद् स० वेदयते-जानता है । इति इस प्रकार पते ये । अष्टौ-माठ। ग्रहाग्रह हैं। + च-और । अष्टौ प्राट । अतिग्रहा-प्रति- 1 भावार्थ। त्वक् इन्द्रिय ग्रह है, और स्पर्शरूप उसका अंतिग्रह है, त्वगिन्द्रिय स्पर्श से गृहीत है, क्योंकि त्वगिन्द्रिय से ही विविध प्रकार के स्पर्शों को पुरुष जानता है, चूंकि त्वगिन्द्रिय द्वारा अनेक प्रकार के स्पर्श को भोगता है, और मोग कर बन्धन में पड़ता है, इस लिये त्वगिन्द्रिय को ग्रह यानी वांधनेवाला कहा है || मन्त्र:१० याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदछ सर्व मृत्योरन्नं कास्वित्सा देवता यस्या मृत्युरन्नमित्यग्निवे मृत्युः सोऽ- पामन्नमपपुनमृत्यु जयति ॥ पदच्छेदः। याज्ञवल्क्य, इति, ह, उवाच, यत्, इदम् , सर्वम्, मृत्योः, अन्नम् , का, स्वित्, सा. देवता : यस्याः; मृत्युः, अन्नम्, इति, अग्निः, वैः, मृत्युः, सः, अपाम्, अन्नम्, अप, पुनः, मृत्युम् , जयति ॥ अन्वय-पदार्थ । + आर्तभाग:-मार्तभाग ने । इति इस प्रकार । उवाच कहा । याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य !। यत्-जी । इदम्-यह । सर्वम्-सब वस्तु दृष्ट व अदृष्ट स्थूल व सूक्ष्म है। + तत् सर्वम् वह सव । मृत्योः ग्रह प्रतिग्रहरूप मृत्यु का । अन्नम् आहार है।
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