पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३१३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ३ ब्राह्मणं २ अन्वय-पदार्थ। वैनिश्चय करके । हस्तौ दोनों हाथ । ग्रहः ग्रह हैं । सः- वही दोनों हाथ । कर्मणा कर्मरूपी। अतिग्राहेण-प्रतिग्रह यानी विपय करके । गृहीत: गृहीत है । हि-क्योंकि । + लोका लोक । हस्ताभ्याम् हाथों से । कर्म काम । करोति= करता है। भावार्थ । दोनों हाथ ग्रह हैं, और कर्म उसका अतिग्रह है, दोनों हाथ कर्म करके गृहीत हैं, क्योंकि हाथों करके ही पुरुष कर्म को करता है, चूंकि अधिक करके हाथ करके ही बुरे कर्म किये जाते हैं, जिससे कि कर्मकर्ता बन्धन में पड़ता है, इसी लिये दोनों हाथों को ग्रह यानी बांधनेवाला कहा है ॥८॥ मन्त्र:8 त्वग्वै ग्रहः स स्पर्शनातिग्राहेण गृहीतस्त्वचा हि स्पर्शान् वेदयत इत्येतेऽष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहाः ॥ पदच्छेदः। त्वक्, वै, ग्रहः, सः, स्पर्शन, अतिग्राहण, गृहीतः, स्वचा, हि, स्पर्शान् , वेदयते, इति, एते, अष्टी, ग्रहाः, अष्टी श्रतिग्रहाः ॥ अन्वय-पदार्थ। स्वक्त्वगिन्द्रिय । वै-निश्चय करके । ग्रहः ग्रह है। सः वही स्वग्रूप ग्रह । स्पर्शन-स्पर्शरूप । अतिमाहेण-प्रतिग्रह करके । गृहीतः गृहीत है। हि-क्योंकि । त्वचा त्वचा करके ही । स्पर्शान-अनेक प्रकार के स्पर्शों को। + पुरुषः पुरुप ।