२६४ बृहदारण्यकोपनिषदः सं०. . के प्रति । उवाच कहता भया। तत्-उसी । एतत्-इस मधु ब्रह्मविद्या को। पश्यन्-देखते हुए । ऋषि:-एक ऋषि ने । अवोचत् कहा कि । सः वह परमात्मा । द्विपद: दो पादवाले। पुरम्पती. और मनुष्यों के शरीरों को। चतुष्पदः चार पाद- वाले । पुरः पशुओं के शरीरों को। चक्रे-बनाता भया । +सः= वही परमात्मा । पुरः पहिले । पक्षी-लिंगशरीर । भूत्वा- होकर । पुर: शरीरों में। पुरुषः + सन्-पुरुष यानी पुर में रहनेवाला ऐसा अर्थग्राही नाम धारण करता हुआ। श्राविशत् इति प्रवेश करता भया । सः वै-वही । अयम्-यह परमात्मा । सर्वासु-सब । पूर्वाशरीरों में। पुरिशयः पुरुषः सोनेवाला है। एनेन-इसी पुरुप करके । किञ्चन-कुछ भी। अनावृतम् - अनाच्छादित । न-नहीं है यानी इसी पुरुष करके सब चराचर ब्रह्माण्ड भाच्छादित है। + तथा-तैसेही । एनेन इसी पुरुष करके । किञ्चन-कुछ भी। असंवृतम् न-अनुप्रवेशित नहीं है ऐसा नहीं है यानी सब कुछ इसी पुरुष करके प्रवेशित है। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं हे मैत्रेयि ! उसी मधुनामक ब्रह्मविद्या का उपदेश अथर्ववेदी दध्यङ्-ऋषि ने अश्विनी- कुमारों के प्रति कहा और तिसी मधुनामक ब्रह्मविद्या को जानता हुआ एक ऋषि उन अश्विनीकुमारों से ऐसा कहता भया कि हे अश्विनीकुमारी ! वह परमात्मा दो पैरवाल पक्षी और मनुष्य के शरीरों को और फिर चार पैरवाले पशुओं के शरीरों को बनाता भया, वही परमात्मा आदि में लिङ्ग- शरीर होकर शरीरों में पुरुष यानी पुर में रहनेवाला ऐसा अर्थप्राही नाम धारण करता हुआ प्रवेश करता भया, वही परमात्मा सब शरीरों में सोनेवाला पुरुष है, इसी पुरुष करके
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