पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३१०

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२९६ बृहदारण्यकोपनिषद् स० पदच्छेदः। - जिहा, वै, ग्रहः, सा, रसेन, अतिप्राहेण, गृहीतः, जिह्वया, हि, रसान् , विजानाति ॥ अन्वय-पदार्थ । जिह्वा जीभ । वैही। ग्रहः ग्रह है । साम्यही जीभ । रसेन-रसरूप । अतिग्राहेण-प्रतिग्रह करके यानी विषय करके। गृहीतगृहीत है। हि-क्योंकि । + लोकालोक । जिया जीभ ही करके । रसान्-रसों को । विजानाति जानता है। भावार्थ। जीभ ग्रह है, और इसका विषय रस अतिग्रह है, रस करके ही जीभ गृहीत है, क्योंकि जीभ से ही विविध प्रकार के रसों का ज्ञान होता है, यह जीभ अनेक प्रकार के रस यानी विषयसम्बन्धी स्वाद को ग्रहण करती है, इसलिये जीभ के वन्धन का हेतु है ॥ ४ ॥ मन्त्रः ५ चक्षुर्वं ग्रहः स रूपेणातिग्राहेण गृहीतश्चक्षुषा हि रूपाणि पश्यति ॥ पदच्छेदः। चक्षुः, वै, ग्रहः, सः, रूपेण, अतिग्राहेण, गृहीतः, चक्षुषा, हि, रूपाणि, पश्यति ॥ अन्वय-पदार्थ । चक्षुःन्नेत्र । वै-ही । ग्रहः ग्रह है। सावही नेत्र । रूपेण= रूपस्वरूप । अतिग्राहेण-प्रतिग्रह यानी विषय करके । गृहीतः