अध्याय ३ ब्राह्मण २ २१५ यानी विषय से । गृहीत: गृहीत है। हिक्योंकि । + लोकाः लोक। वाचावाणी करके । नामानि नामों को अभिवदति- कहता है। भावार्थ । वागिन्द्रिय ग्रह है, वह वागिन्द्रिय वाणों और नाम अति- ग्रह से गृहीत है, क्योंकि जितने नाम हैं वे सव वाणी के प्रकाशक हैं, और वाणी वागिन्द्रिय का प्रकाशक है, बगैर नाम के वाणी की सिद्धि नहीं हो सकती है, जैसे किसी वस्तु की सिद्धि बगैर नाम के नहीं हो सकती है। यह घट है, यह पट है, यह ब्रह्म है, यह जगत् है, इन सबकी सिद्धि नाम करके ही हो सकती है, यदि नाम 'नं हो तो किसी वस्तु की सिद्धि कभी नहीं हो सकती है, और यदि वाणी न होय तो वागिन्द्रिय यानी मुख की सिद्धि नहीं होसकती है, इस- लिये वागिन्द्रिय से वाणी श्रेष्ठ है, और वाणी से नाम श्रेष्ठ है, वागिन्द्रिय को ग्रह (बन्धक ) इस कारण कहा है कि वह पुरुपों को बांधती है, क्योंकि संसार में असत्यादिक अधिक कहे जाते हैं, यदि वागिन्द्रिय से सत्यादिक अधिक कहा जाय तो वही वागिन्द्रिय उस कहनेवाले को मुक्ति का ' कारण हो सकती है, यहां पर संसार के व्यवहार की अधिकता के कारण वागिन्द्रिय को ग्रह कहा है ॥ ३॥ मन्त्रः ४.. जिह्वा वै ग्रहः स रसेनातिग्राहेण गृहीतो जिद्दया हि रसान्विजानाति ॥
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