. १४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० दक्षिणा दक्षिण । च-और । उदीची उत्तर दिशा। पाश्व- उसकी बगलें हैं । द्यौः स्वर्ग । पृष्ठम्-पीठ है । अन्तरिक्षम् श्राकाश । उदरम् रेट है । इयम्-यह पृथ्वी। उरः-हृदय है। सम्वही । एषः यह प्रजापति रूप अश्वमेधाग्नि । अप्सु जल में । प्रतिष्ठितम् स्थित है। यत्र-जहाँ । कच-कहीं। एवम् ऐसा । विद्वान् ज्ञाता । एति-माता है । तदेव-वहाँ । प्रतितिष्ठति-प्रतिष्ठा पाता है। भावार्थ । हे सौम्य ! वह विराट् अपने को तीन भागों में विभाग करता भया, कैसे उसने तीन भागों में विभाग किया सो कहते हैं, तुम सावधान होकर सुनो, अलावा वायु और अग्नि के उसने सूर्य को अपना तीसरा स्वरूप रचा, इसी- प्रकार अलवा अग्नि और सूर्य के वायु को अपना तीसरा स्वरूप रचा, तैसे ही अलावा वायु और सूर्य के अग्नि को अपना तीसरा स्वरूप रचा, सोई यह सर्वभूतान्तःस्थ विराट अग्नि, वायु, सूर्य करके तीन प्रकार का विभाग किया हुआ अश्वमेध अग्नि में आरोपित किया हुआ घोड़ा है, यानी ऐसी जो अश्वमेध अग्नि है वही मानों एक घोड़ा है, उसका शिर पूर्व दिशा है, उसके बाहु ईशानी और आग्नेयी दिशा हैं, उसका पिछला भाग पश्चिम दिशा है, उसके दोनों जाँध वायु दिशा और नैऋति दिशा हैं, उसको बगलें दक्षिण और उत्तर दिशा है, उसकी पीठ स्वर्ग है, उसका पेट आकाश है, उसका हृदय पृथिवी है, सोई यह प्रजापतिरूप अश्वमेध अग्नि जल में स्थित है, ऐसा उपासक जहाँ कहीं जाता है वहाँ प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है ॥ ३ ॥ .
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