२६० बृहदारण्यकोपनि पद् स० कहता हूं । यत्-जिसको । आथर्वणः अथर्ववेदी । दध्यङ= दध्यपि ने। अश्विभ्याम् अश्विनीकुमारों के प्रति । उवाच कहा था।+ सावह दध्यऋपि । तेषाम् उनसे । इति-ऐसा अवोचत् कहता भया कि । नरा:-हे अश्विनीकुमारी!। वाम्- तुम दोनों के लिये । तत्-उसी । एतत्-इस ब्रह्मविद्या को। युवयोः तुम्हारे । सनये-लाम के लिये । इति-ऐसा साफ । आविष्कृणोमि-प्रकाश करूंगा। न जैसे। तन्यतुः विद्युत् । वृष्टिम् वृष्टि के थाने को ।। सूचयति-बताती है । तत्पश्चात इसके बाद । तत्-उस । उग्रम्-उग्र। दंसः कर्म को । पश्यन्-अनुभव करता हुथा। पाथर्वणः अधर्ववेदी । दध्य दध्यऋपि । अश्वस्य-घोड़े के। शीपा-शिर के द्वारा । तेषाम् उनको । मधुब्रह्मविद्या को। प्रोवाच कहता मया । भावार्थ । हे प्रिय मैत्रेयि ! एक समय दोनों अश्विनीकुमार देवताओं के वैद्य, अथर्ववेदी दध्यऋषि के पास गये, और सविनय प्रार्थना किया, यह कहते हुये कि हे प्रभो ! हम लोगों के प्रति आप कृपा करके ब्रह्मविद्या का उपदेश करें, ऋषि महाराज ने कहा कि मैं उपदेश करने को तैयार हूँ, परन्तु मुझको इन्द्र का भय है, क्योंकि उसने कहा है कि अगर तुम कमी ब्रह्मविद्या का उपदेश किसी को करोगे तो तुम्हारा शिर मैं काट डालूँगा, सो अगर मैंने तुम : को उपदेश किया तो वह मेरा शिर अवश्य काट डालेगा। ऐसा सुनकर अश्विनी- कुमारों ने ऋषि कोः आश्वासन देकर कहा कि आप न घबड़ाइये हम आपके शिर को काटकर अलग रख देंगे, और एक घोड़े के शिर को काटकर आपकी गर्दन पर लगा देंगे, 1
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