अध्याय २ ब्राह्मण ५ २५७ अमृतमयः, पुरुषः, अयम्, एव, सः, यः, अयम् , आत्मा, इदम् , अमृतम् , इदम्, ब्रह्म, इदम् , सर्वम् ।। अन्वय-पदार्थ। अयम्-यह-परिच्छिन्न । आत्मामात्मा । सर्वेषाम्सब । भूतानाम्-भूतों का । मधु-सार है अथवा सब प्राणियों को प्रिय है। + चन्और । अस्य-इस । श्रात्मन:अपरिच्छिन्न श्रात्मा का । सर्वाणि-सव । भूतानि-भून । मधु-सार है अथवा सब प्राणी इसको प्रिय हैं । चन्और । य:जो। अस्मिन्-इस । आत्मनि-अपरिच्छिन्न आत्मा में । अयम्=यह । तेजोमयः- प्रकाशस्वरूप । अमृतमयः अमरधर्मी । पुरुषापुरुष है 1 अयम् एव-चही निश्चय करके । सः वह है । यःजो । आत्मा-परिच्छिन्न भास्मा। तेजोमयः तेजोमय । अमृतमयः अमृतमय । पुरुष-पुरुष है। च-और । यःमो । अयम्-यह । आत्मा-परिच्छिन्न प्रात्मा है । इदम् यही। अमृतम्-अमरधर्मी है । इदम् यही । ब्रह्म-ब्रह्म है। इदम् यही । सर्वम् सर्व- शक्तिमान् है। भावार्थ। हे मैत्रेयि, देवि ! यह जो परिच्छिन्न बुद्धि है, यह सब भूतों का सार है, अथवा सब भूनों को प्रिय है, और अपरिच्छिन्न बुद्धि का सब भूत सार हैं, अथवा सब प्राणी इसको प्रिय हैं, और जो अपरिच्छिन्न बुद्धि में प्रकाशरूप, अमरधर्मी पुरुष है, और जो परिच्छिन्न बुद्धि में तेजोमय पुरुष है, यह दोनों एक ही हैं, और हे देवि ! जो परिच्छिन बुद्धि विषे पुरुष है, यही अमर है, यही ब्रह्म है, यही सर्व- शक्तिमान् है, और यही तुम्हारा रूप है ॥ १४ ॥ १७
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