२५६ बृहदारण्यकोपनिपद् स० अयम् यही । एव-निश्चय करके । सम्बह है यानी जो हृदय में स्थित है । च-धौर । याजो। अयम्-यह हृदयगत । श्रात्मा-पारमा है । इदम् यही । अमृतम्-अमर है। इदम् यही । ब्रह्म-ब्रह्म है । इदम् यही । सर्वम् सर्वशक्तिमान् है । भावार्थ । हे मैत्रेयि, देवि ! यह मनुष्य जाति सब भूतों का सार है, अथवा सब प्राणियों को प्रिय है, और सब भूत इस मनुष्य. जाति के सार हैं, अथवा सब प्राणी इसको प्रिय हैं, यानी जैसे यह औरों को चाहता है वैसे ही और प्राणी भी इसको चाहते हैं, और हे देवि ! जो इस मनुष्यजाति में प्रकाश- स्वरूप अमरधर्मी पुरुप है और जो हृदय में प्रकाशरूप अमरधर्मी पुरुष है ये दोनों एक ही हैं, कोई उनमें भेद नहीं है, और हे देवि ! जो यह हृदयगत पुरुष है, यही अमर है, यही ब्रह्म है, यही सर्वशक्तिमान् है, यही तुम्हारा रूप है ॥ १३ ॥ मन्त्र: १४ अयमात्मा सर्वेपां भूतानां मध्वस्याऽऽत्मनः सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्नात्मनि तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमात्मा तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदॐ सर्वम् ।। पदच्छेदः । अयम् , आत्मा,सर्वेषाम् , भूतानाम् , मधु, अस्य, आत्मनः, सर्वाणि, भूतानि, मधु, यः, च, अयम्, अस्मिन् , आत्मनि, तेजोमयः,अमृतमयः, पुरुषः, यः, च, अयम् , आत्मा, तेजोमयः,
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२७२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।