२५.४ वृहदारण्यकोपनिषद् स० सत्यः, तेजोमयः अमृतमयः, पुरुषः, अयम् , एच, सः: यः, अयम् , आत्मा, इदम् , अमृतम् , इदम् , ब्रह्म, इदम्, सर्वम् ।। अन्वय-पदार्थ। इदम् यह। सत्यम्-सत्य। सर्वेपाम् सब । भूतानाम् भूतों काामधु-सार है अथवा सब भूतों को प्रिय है। च-शोर । श्रस्य इस। सत्यस्य-सत्य का ! सर्वाणि सब । भृतानि-भूत । मधु- सार हैं यानी इस सत्य को सब प्राणो प्रिय हैं। च-चौर । यःजो अस्मिन्-इस । सत्ये सत्य म। अयम्-यह । तेजोमयः प्रकाशस्वरूप । अमृतमय:- r:-अमरधर्मी । पुरुषः-पुरुप है । अयम्-एव यही निश्चय करके । साह है। यःो। अध्या- मम्-हृदयसम्बन्धी । अयम्-यह । सत्यः-सस्य । तेजोमयः- प्रकाशस्वरूप । अमृतमय:-अमरधर्मी । पुरुषः पुरुप है। च-और । यःजो। अयम् यह हृदयस्थ । श्रात्मा-प्रारमा है । इदम् यही। अमृतम्-अमर है। इदम् यही । + ब्रह्म ब्रह्म है । इदम्यही । सर्वम् सर्वशनिमान् है। भावार्थ। हे मैत्रेयि, देवि ! यह परिच्छिन सत्य सब भूतों का सार है, अथवा सब प्राणियों को प्रिय है, और इस अपरिच्छिन्न सत्य का सत्र भूत सार हैं, यानी सब इसको प्रिय हैं, और हे देवि ! जो प्रकाशवरूप, अमरधर्मी पुरुप इस सत्य में रहता है वही निश्चय करके हृदय विपे सत्य है, वही प्रकाश- अमरधी पुरुप हृदय विपे रहता है, यानी दोनों एकही हैं इन दोनों में कोई भेद नहीं है, और हे देवि ! जो हृदयस्थ आत्मा है यानी हृदय विपे जो पुरुप शयन किये यानी पुरुष स्वरूप,
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