अध्याय १ ब्राह्मण २ . समझा कि मुझ विचार करनेवाले के लिये जल आदि उत्पन्न हुए हैं, जो मेरे रहने की जगह है, यहो उस परम पूजनीय ईश्वर की ईश्वरता है, जो उपासक इस प्रकार हिरण्यगर्भ ईश्वर की ईश्वरता को और जल के जलत्व को जानता है वह अपन अभीष्ट फल को प्राप्त होता है ॥ १ ॥ मन्त्रः २ आपो वा अर्कस्तयदपां शर आसीत्तत्समहन्यत सा पृथिव्यभवत्तत्तस्यामश्राम्यत्तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य तेजोरसो निरवर्त्तताग्निः ॥ पदच्छेदः। आपः, वा, अर्कः, तत्, यत्, अपाम्, शरः, आसीत्, तत्, समहन्यत, सा, पृथिवी, अभवत्, तत्, तस्याम् , अश्राम्यत् , तस्य, श्रान्तस्य, तप्तस्य, तेजोरसः, निरवर्त्तत, अग्निः ॥ अन्वय-पदार्थ। श्र:=धक ही । वैनिश्चय करके । श्राप: जल है । तत्-वह । यत्-जो । अपाम्-अल. का । शर: फेन । + दन-दही के । + मएडम्-माँड़ की । + इव-तरह । श्रासीत् उत्पन्न हुया. । तत्-वही । समहन्यत-तेज करके कठोर होता भया ।+ पुनः फिर । सा-वही । पृथिवी-पृथ्वी । अभवत्-होती भई यानी अंढे के आकार में दिखाई दी। तस्याम्=तिस पृथ्वी के । + उत्पादितायाम् उत्पन्न होने पर । + हिरण्यगर्भ:-हिरण्यगर्भ ईश्वर । श्रश्राम्यत्-श्रमित होता । श्रान्तस्य-तिस श्रमित हुए । तप्तस्य-खेदयुक्त । भया
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