पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२६६

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२५० बृहदारण्यकोपनिपद् स० बिपे । अयम् यह । शाब्दः शव्दव्यापी । सौवर:-स्वरव्यापी। तेजोमयः प्रकाशरूप । अमृतमय: अमरधर्मी । पुरुपा-पुरुष है। च-और । यः जो । अयम्-यह शब्द और स्वरव्यापी । आत्मा-मात्मा है । इदम् यही । अमृतम् -अमृतमय है। इदम् यही । ब्रह्म-ब्रह्म है । इदम् यही । सर्वम् सर्वशकिमान् . भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं, कि हे मैत्रेयि, देवि ! नाद करनेवाला मेघ सब भूतों का सार है, अथवा सब प्राणियों को प्रिय है, और इस मेघ का सार सत्र भूत हैं, अथवा इस मेघ को सब मनुष्यादि प्राणी प्रिय हैं, और हे मैत्रेयि ! इस मेघ बिपे जो यह प्रकाशस्वरूप अमरधर्मी पुरुष है, यही वह है जो देहविषे स्वर्गव्यापी अथवा स्वरव्यापी, तेजोमय, अमृतरूप पुरुष है, यानी दोनों में कोई भेद नहीं है, और हे मैत्रेयि ! जो इस देश में शब्दव्यापी और स्वरव्यापी पुरुष है यही अमररूप है, यही सर्वशक्तिमान् है, यही तुम्हारा रूप है मन्त्रः १० अयमाकाशः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याऽऽकाशस्य सर्वाणि भूतानि मधु यश्चायमस्मिन्नाकाशे तेजोमयोऽ- मृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मछ हृद्याकाशस्तेजोमयोऽ- मृतमयः पुरुपोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मदछ सर्वम् ।