अध्याय २ ब्राह्मण ५ .२४५ प्राणियों को । मधु प्रिय हैं । चौर । अासाम्-इन । दिशाम्-दिशाओं को । सर्वाणि-पत्र । भूतानि-प्राणी । मधु-प्रिय हैं। + चौर । य:ो । आसु-इन । दिक्षु- दिशाओं में । अयम्-यह । तेजोमय:-प्रकाशस्वरूप अमृतमयःमतरधर्मी । पुरुषा=नुरुप है । चौर । यःजो । अध्यात्मम्-शरीर में । अयम्-यह । श्रौत्रः कर्णध्यापी । प्रातश्रुत्का प्रतिध्वनिरूप । तेजोमया तेजोमय । अमृतमयः= अमृतमय । पुरुषानुरुप है । अयम् एवम्यही यानी कर्णव्यापी पुरुप । सान्त्रह दिशाव्यापी पुरुष है। च-और । यःजो। अयम् यह कर्णव्यापी । आत्मा-प्रात्मा है । इदम् यही । अमृतम्-अमरधर्मी है । इदम् यही । ब्रह्म-ब्रह्म है। इदम् यही । सर्वम्-सर्वशक्रिमान् है। भावार्थ। हे प्रियदर्शन ! याज्ञवल्क्य महाराज मैत्रेयी देवी से कहते हैं कि, ये दिशायें सब प्राणियों को प्रिय हैं और इन दिशाओं को सब प्राणी प्रिय हैं क्योंकि विना दिशा के किसी प्राणी का आना जाना नहीं हो सकता है। सब कार्य दिशा के आधीन हैं। कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और पाँचों प्राण ये सब दिशा केही आधीन हैं, विना दिशा की सहायता के किसी कार्य के करने में असमर्थ हैं। इसलिये दिशायें सब प्राणियों को प्रिय हैं और जो वस्तु प्रिय होती है उसी को लोग अपने. में. रखते हैं और चूंकि पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं में सब चराचर सृष्टि व्याप्त है इस लिये .दिशा को सब प्रिय हैं,. देवि ! जो प्रकाशस्वरूप, अमरधर्मी पुरुष इन दिशाओं में है .
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