२३६ वृहदारण्यकोपनिषद् स० पश्येत्-देवता है । तत्-नहां । कन-किन कई । कामः- किसको । शृणुयात्-युनता है । नन्-महा। कन-किस करके। कम्-किसकी। अभिवत-कहना है । तन् । कन-किम करके । कम्करको । मन्धीत-मानना । नत केन-किस करके । कम्-किसको । विजानीयान-जानना येन-जिय मामा करो। इदम्-इम । सर्वम्-मयको । + पुरुषाभुरुप । विज्ञानानि-मानना । नम:म सामा को। केन-किस करके। विजानीयात-कोई शान मरना है। अरे हे नियमैत्रेयि ! विगातारम-विज्ञाता को । फेनविय साधन करके । विजानीयात् इति कोई जान सका है। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज फिर भी अपनी प्रिया मैत्रेयी से कहते हैं कि, हे मैत्रेयि ! जहां दंत की भावना होती है वहां ही इतर इतर को सुंघता है, वहां ही इतर रतर को देखता है, वहां ही और और की सुनता है, वहां ही और और को कहता है, वहां ही और और को सममता है, वहां ही इतर इतर को जानता है, हे प्रियगे।यि ! जहां सब आत्मा ही हो गया है, वहाँ किस करके किसको कौन संघता है, वहां किस करके किसको कौन देखता है, वहां किस करके किसको कौन सुनता है, वहां किस करके किसको कौन कहता है, वहां किस करके किसको कौन समझता है, वहां किस करके किसको कौन जानता है, जिस यात्मा करके इस सबको पुरुप जानता है उस प्रात्मा को किस करके कौन जान सक्ता हैं ? ज्ञानस्वरूप आत्मा को किस साधन करके कोई ग्रहण कर सकता है ? वात्मा ज्ञानस्वरूप, -- .
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२५२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।