अध्याय २ ब्राह्मण ४ २३३ कहीं से यानी ऊपर नीचे, दहिने बायें, मध्य से पानी को जो कोई चखता है तो नमक ही नमक पाता है, उसी प्रकार हे मैत्रयि ! यह जीवात्मा निस्संदेह इन पांच तत्वों में और उनके कार्यों में अनन्त और अपाररूप से स्थित है, यह विज्ञान- रूप है, इन भूतों से उठकर इन्हीं में जलसैन्धववत् अदृष्ट हो जाता है, और फिर शरीर से पृथक् होने पर उस जीवात्मा का कोई नाम नहीं रहता ह ।। १२ ।। मन्त्रः १३ सा होवाच मैत्रेय्यत्रैच मा भगवानमूमुहन्न प्रेत्य संज्ञा- ऽस्तीति स होवाच न वा अरेऽहं मोहं ब्रवीम्यले वा अर इदं विज्ञानाय ॥ पदच्छेदः। सा, ह, उवाच, मैत्रेयी, अत्र, एव, मा, भगवान्, अमू- मुद्दत्, न, प्रेत्य, संज्ञा, अस्ति, इति, सः, ह, उवाच, न, वै, अरे, अहम् , मोहम्, ब्रवीमि, अलम् , बै, अरे, इदम् , विज्ञानाय ॥ अन्वय-पदार्थ । सा-वह । ह-प्रसिद्ध । मैत्रयी-मैत्रेयी । उवाच-बोली कि । + यत्-जो । भगवान्-यापने । + उक्तम् कहा है कि । प्रेत्य% मरने पर । संज्ञा-उस महान् आत्मा का नाम । न-नहीं। अस्ति-रह जाता है । अत्र एव-इसी विषय में ही। +भगवान् = आपने । मा-मुझको । अमूमुहत्-भ्रम में डाल दिया है । + तदा-तत्र । सा=बह । हम्प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य । उवाच- बोले कि । अहम् में । अरे हे प्रियमैत्रेयि ! वे-निश्चय करके । . . ,
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