अध्याय २ ब्राह्मण ४. २२५ शब्दः, 1 पदच्छेदः। सः, यथा, शङ्खस्य, धमायमानस्य, न, बाह्यान्, शब्दान् , शक्नुयात् , ग्रहणाय, शङ्खस्य, तु, ग्रहणेन, शङ्खध्मस्य, वा, गृहीतः ॥ अन्वय-पदार्य। + अत्र-इस विपे । सा=ग्रह प्रसिद्ध । + दृष्टान्त: दृष्टान्त । + वदति कहते । यथा जैसे । ध्मायमानस्य-बजते हुये । शहस्य-शंख के । बाह्यान् बाहर निकले हुये । शब्दान्-शब्दों को । ग्रहणाय-ग्रहण करने को । + जनाकोई मनुष्य । न% नहीं। शक्नुयात्-समर्थ होता है । तुअरन्तु । शङ्खस्य-शंख के । ग्रहणेन ग्रहण से । वा अथवा । शङ्खध्मस्य-शंख बजाने- वाले के I + ग्रहणेन-प्रहण से । शब्द: शब्द का । गृहीत: ग्रहण ।+भवति हो जाता है। तद्वत्-उसी प्रकार + आत्मनः श्रात्मा के ज्ञान से । + सर्वस्य ज्ञानम्-सबका ज्ञान I+भवति- हो जाता है। भावार्थ । हे सौम्य ! याज्ञवल्क्य महाराज फिर दृष्टान्त देकर मैत्रेयी को समझाते हैं कि हे प्रिये मैत्रेयि ! जैसे बजते हुये शंख के बाहर निकले हुये शब्दों को ग्रहण करने के लिये कोई मनुष्य समर्थ नहीं होता है, वैसे ही इस आत्मा से निकले हुये शास्त्र आदि के ग्रहण करने से आत्मा का ग्रहण नहीं हो सक्ता है । परन्तु शंख के ग्रहण करने से अथवा शंख के बजाने- वाले के ग्रहण करने से शंख के शब्द का ग्रहण हो जाता है, उसी तरह इन्द्रियादिकों के ग्रहण कर लेने से उसके साथ जो आत्मा है उसका ग्रहण होता है ॥ ८॥ १५
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