अध्याय २ ब्राह्मण ४ अन्वय-पदार्थ । + इति यह । + श्रुत्वा-सुनकर । साबह । ह-प्रसिद्ध । मैत्रेयी-मैत्रेयी। उवाच-बोली कि । भगो-हे भगवन् ! । तु-मैं पूछती हूँ कि । यत्-जो । इयम्-यह । सर्वा-सव । पृथिवी-पृथिवी । वित्तेन-धन करके । पूर्णा-पूर्ण । मे मेरी ही । स्यात्-हो जाय तो। कथम्-किसी प्रकार । तेन-उस धन करके । + अहम् =मैं । अमृता-मुक्त । स्याम्-हो जाऊँगी। इति-ऐसा। श्रुत्वा-सुनकर । ह-प्रसिद्ध । याज्ञवल्क्याम्याज्ञ- वत्स्य । उवाच-बोले कि । न इति-ऐसा नहीं । यथा-जैसे । एव-निश्चय करके । उपकरणवताम्-उत्तम सुख साधनवालों का । जीवितम्-जीवन । + भवति होता है । तथैव-तैसे ही। ते-तेरा भी। जीवितम्-जीवन । स्यात्-होगा । तु-परन्तु । अमृतस्य मुक्ति की। आशा-प्राशा। वित्तेन-धन करके। न अस्ति इति कभी नहीं हो.सकती है। भावार्थ। यह सुनकर मैंत्रयी बोली कि हे प्रभो ! हे भगवन् ! मैं पूछती हूँ आप कृपा करके मुझको उत्तर दीजिये । हे प्रभो ! मान लीजिये कि यह सब पृथ्वी धन करके पूर्ण है, यदि दैवइच्छा से मेरी हो जाय तो क्या उस धन करके मैं ताप- त्रय से छूट जाऊँगी, यानी मुक्त हो जाऊँगी ? याज्ञवल्क्य महाराज ने जवाब दिया कि ऐसा तो नहीं हो सकता है, हाँ जैसे उत्तम सुख साधनवालों का जीवन होता है वैसे ही तुम्हारा भी जीवन हो जायगा, परन्तु मुक्ति की आशा धन करके नहीं हो सकती है ।। २ ॥
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