२१२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० भावार्थ । हे सौम्य ! एक समय राजा जनक और याज्ञवल्क्यऋपि परस्पर बातचीत कर रहे थे, राजा जनक ने याज्ञवल्क्य महाराज से कहा कि हे प्रभो ! मैंने वैराग्य के स्वरूप को नहीं देखा है, उसका कैसा स्वरूप होता है, मैं देखना चाहता हूँ, याज्ञवल्क्य महाराज ने कहा कि कल मैं तुमको वैराग्य का स्वरूप दिखादूंगा, ऐसा कहकर अपने घर चले श्राये, और अपनी लघुपत्नी मैत्रेयी से कहा, हे प्रियमैत्रेयि ! मैं इस गृहस्थाश्रम को त्यागना चाहता हूँ और वानप्रस्थाश्रम को प्रहण करनेवाला होना चाहता हूँ, यदि तुम्हारी अनुमति हो तो तुम्हारे और कात्यायनी के मध्य में द्रव्य को बराबर बरा- बर बाँट दूं ॥ १ ॥ मन्त्रः २ सा होवाच मैत्रेयी यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात्कथं तेनामृता स्यामिति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवापकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवित स्यादमृतत्वस्य तु नाऽऽशास्ति वित्तेनेति ॥ पदच्छेदः। सा, ह, उवाच, मैत्रेयी, यत्, नु, मे, इयम् , सर्वा, पृथिवी, वित्तेन, पूर्णा, स्यात्, कथम् , तेन, अमृता, स्याम्, इति, न, इति, ह, उवाच, याज्ञवल्क्यः, यथा, एव, उपकरणवताम् , जीवितम् , तथा, एव, ते, जीवितम्, स्यात्, अमृतत्वस्य, तु, न, आश, अस्ति, वित्तन, इति । भगोः, . .
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२२८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।