पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२२६

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-> - २१० बृहदारण्यकोपनिपद् स० कोई उपदेश नहीं है, क्योंकि इस परमात्मा से बढ़कर न कोई उत्कृष्ट देव है, न कोई उसके समान है, और न कोई सामग्री उसके वर्णन के लिये है, इसलिये नेति नेति शब्द के द्वारा उसका उपदेश किया जाता है, हे बालाके ! जगत् के दो भाग हैं, एक मूर्तिमान्, और एक अमूर्तिमान् , इन दोनों के लिये दो नकार प्रयुक्त हैं, यानी मूर्त्तिमान् वस्तु को देखकर शिष्य के प्रश्न करने पर कि यह ब्रह्म है ? गुरु कहता है-यह नहीं है, यह नहीं है, ज्यों ज्यों ब्रह्म विपे शिष्य प्रश्न करता जाता है त्यों त्यों गुरु नेति नेति करके उत्तर देता जाता है, जब संपूर्ण मूर्तिमान् विपय यानी अग्नि, जल, पृथ्वी की सब वस्तुओं की समाप्ति हो जाती है, और जब शिष्य अमूर्तिमान् यानी वायु और आकाश के कार्यों के विषय में प्रश्न करता है तव गुरु फिर भी नेति नेति शब्द से उसको उपदेश करता जाता है, जहाँ शिष्य का प्रश्न समाप्त हो जाता है, वहाँ दोनों यानी शिष्य और गुरु चुप- चाप हो जाते हैं, वहीं पर शिष्य को ब्रह्म की तरफ निर्देश करके गुरु बताता है कि यह ब्रह्म है, और फिर वहाँ से ही ऊपर को यानी कारण के कार्य को बताता चला आता है कि यह भी ब्रह्म है, यह भी ब्रह्म है, क्योंकि कार्य में कारण अनुगत रहता है, अथवा कार्य कारण एकरूप होता है, सब संसार भर ब्रह्मरूप ही है, ऐसा उपदेश पाने के वाद शिष्य शान्त होकर महाआनन्द को प्राप्त हो जाता है, और फिर शिष्यत्व और गुरुत्व भाव दोनों का नष्ट हो जाता है, हे वालाके ! इस ब्रह्म का नाम सत्य का सत्य है, जो बाह्य और. अभ्यन्तर प्राण है, उसका नाम भी सत्य है, उन प्राणों का