अध्याय २ ब्राह्मण ३ २०७ भावार्थ । हे सौम्य ! अब अमूर्त जो पदार्थ है, उस विषय का उपदेश किया जाता है, जो हृदय के भीतर आकाश है, और जो शरीरस्थ प्राण है, और जितने प्राण और आकाश के भेद हैं, वहीं यह अमरधर्मी है, वही गमनशीलवाला है, वही अव्यक्त है, उसी प्रमूर्तिमान का, उसी अमरधर्मी का, उसी चलनशीलवाले का, उसी अव्यक्त का जो सार है, वहीं दहिने नेत्र में पुरुष है, अथवा दहिने नेत्रस्थ पुरुष आकाश वायु का सार है ॥ ५ ॥ मन्त्रः ६ तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपं यथा महारजनं वासो यथा पाएड्वाविक यथेन्द्रगोपो यथाग्न्यचिर्यथा पुण्ड- रीकं यथा सकृविद्युत्त सकृविद्युत्तेव ह वा अस्य श्री- भवति य एवं वेदाथात आदेशो नेति नेति न ह्येतस्मा- दिति नेत्यन्यत्परमस्त्यथ नामधेय सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेपामेप सत्यम् ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ३ ॥ पदच्छेदः। तस्य, ह, एतस्य, पुरुषस्य, रूपम्, यथा, महारजनम् , वासः, यथा, पाण्डु, आविकम् , यथा, इन्द्रगोपः, यथा अग्न्यर्चिः, यथा, पुण्डरीकम् , यथा, सकृत् , विद्युत्, तम्, सकृत, विद्युत्ता, इव, ह, वै, अस्य, श्रोः, भवति, यः, एवम्, वेद, अथ, अतः, आदेशः, न, इति, न, इति, न, . . .
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