पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/२२१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय २ ब्राह्मण ३ २०५ प्राणात्, च, या, च, अयम् , अन्तरात्मन्, आकाशः, एतत् , मर्त्यम्, एतत् , स्थितम् , एतत् , सत् , तस्य, एतस्य, मूर्तस्य, एतस्य, मर्त्यस्य, एतस्य, स्थितस्य, एतस्य, सतः, एषः, रसः, यत्, चक्षुः, सतः, हि, एषः, रसः ।। अन्वय-पदार्थ । अथ-अब । अध्यात्मम्-शरीरसम्बन्धी । + ज्ञानम्-ज्ञान । + उच्यते-कहा जाता है । यत् जो । प्राणात्-वायु से । अन्यत्-भिन्न है। च-और । यः जो। अयम्-यह । अन्त- रात्मन् शरीर के अन्तर । आकाश अाकाश है। + तस्मात् उसले । एवम्भी। + यःजो । + भिन्नः पृथक् है । इदम् वही। + एतत्-यह । मूर्त्तम् मूर्तिमान् है । एतत् वही । मर्त्यम्=मरणधर्मी है। एतत्-वही । स्थितम्-स्थायी है । एतत्-वही । सत् व्यक्त है । तस्य-उसी । एतस्य इस । मूर्तस्य मूर्तिमान् का । एतस्य इस | मर्त्यस्य-मरणधर्मी का । एतस्य-इस । स्थितस्य स्थायी का। एतस्य इस । सत: ध्यक्त का । यत्-गो । एषः यह । रसासार है।+ तत्-वही। नेत्र है । हि-क्योंकि । एपः यह नेत्र। सतः व्यक्त का यानी अग्नि, जल और पृथ्वी का । रसःसार है। भावार्थ । हे सौम्य ! अव शरीरसम्बन्धी उपदेश कहा जाता है, जो वायु और वायु के विकार से भिन्न है, जो शरीरस्थ आकाश और आकाश के विकार से भिन्न वस्तु है, यानी जो अग्नि, जल, पृथिवी हैं, वहीं मूर्तिमान् है, वही मरणधर्मी है, वहीं स्थायी है, वही व्यक्त है, तिसी मूर्तिमान् का, तिसी मरण- धर्मी का, तिसी स्थायी का, और तिसी व्यक्त का जो सार है वही नेत्र है ॥४॥ चक्षुः