. १६६ बृहदारण्यकोपनिपद् स० वह पर्जन्यदेवता है, जो पुतली में मध्यम प्राण को पूजता है वह सूर्यदेवता है, जो नेत्र विष कालापन है उसमें रहने- वाले प्राण को जो पूजता है वह अग्निदेवता है, जो नेत्र विषे श्वेतता है उसके अन्दर जो प्राण रहता है उसको जो पूजता है वह इन्द्रदेवता है, पृथिवी अभिमानी देवता नेत्र के नीचे की पलकों के अन्दर रहकर प्राण की पूजा करता है, और द्यौ अभिमानी देवता ऊपर के पलकों के अन्दर रहकर प्राण की पूजा करता है, इस प्रकार जो उपासक प्राण को जानता है उसका अन्न कभी क्षीण नहीं होता , मन्त्र: ३ तदेप श्लोको भवति अर्वाग्विलश्चमस ऊर्चबुध्नस्त- स्मिन् यशो निहितं विश्वरूपं तस्याऽऽसत ऋपयः सप्त- तीरे वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति अर्वाग्विलश्चमस ऊर्ध्वबुध्न इतीदं तच्छिर एप ह्याग्विलश्चमस ऊर्ध्ववुध्न- स्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपमिति प्राणा वै यशो विश्वरूपं प्राणानेतदाह तस्याऽऽसत ऋपयः सप्त तीर इति प्राणा वा ऋपयः प्राणानेतदाह वागष्टमी व्रमणा संविदानेति वाग्म्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते ॥ पदच्छेदः। तत्, एपः, श्लोकः, भवति, अर्वाग्विलः, चमसः, ऊर्ध्व- बुध्नः, तस्मिन् , यशः, निहितम्, विश्वरूपम्, तस्य, आसते, ऋषयः, सप्त, तीरे, वाग्, अष्टमी, ब्रह्मणा,
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