बृहदारण्यकोपनिषद् स० उवाच-बोला कि । यत्र-जिस काल में। एपः यह जीवारमा। पतत्-इस शरीर विपे । सुप्तः सोया हुधा। अभूत-या। + तत्-उस अवस्था में । यःजो । एपः यह । विज्ञानमयः पुरुप विज्ञानमय पुरुप कर्मों का करने हारा है। + सः यह विज्ञानेनअपने ज्ञान करके । एपाम्-इन । प्राणानाम्-धागादि इन्द्रियों के । विज्ञानम्-विषय ग्रहण सामर्थ्य को। श्रादाय- लेकर । तस्मिन्-उस विपे । शेते-सोता है। यागो। एषा% यह । अन्तर्ह दये हृदय के भीतर । अाकाश: धाकाश है। + च-ौर । यदा-जब । + सःवह पुरुप । तानि-टन वागादि इन्द्रियों को । गृहाति-धपने में लय कर लेता है। अथ-तब । ह-वह प्रसिद्ध । एतत्पुरुषः यह पुरुष । स्वपिति- "स्वपिति" के । नामनाम से । + विख्याता भवति-कहा जाता है । + च-और । तत्-तवहीं । प्राणघाण इन्द्रिय । गृहीतः एव-स्वकार्य में असमर्थ । भवति होती है।+ एवम् इसी प्रकार । वाकवाणी इन्द्रिय । गृहीता-स्वकार्य में असमर्थ । + भवति होजाती है। चक्षुः नेत्र इन्द्रिय । गृहीतम्- स्वकार्य में असमर्थ । + भवति होजाती है । श्रोत्रम्-श्रोत्र इन्द्रिय । गृहीतम् + भवति-स्वकार्य में बद्ध होजाती है। मना-मन । गृहीतम् + भवति-स्वकार्य में बद्ध हो जाता है। भावार्थ । तब वह प्रसिद्ध अजातशत्रु राजा बोलता भया कि हे ब्राह्मण ! जिस काल में यह जीवात्मा इस शरीर विषे सोया हुआ था, उस अवस्था में यह विज्ञानगय जीवात्मा कर्गों का करने हारा अपनी ज्ञानशक्ति करके इन वागादि इन्द्रियों के स्व-स्वविषय ग्रहण सामर्थ्य को लेकर उस देश में जाकर जो हृदय के भीतर स्थित है सो गया था, हे सौम्य ! जब यह पुरुष
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