! - १८० बृहदारण्यकोपनिषद् स० एवम्-इस प्रकार । उपास्ते-उपासना करता है। सः वह । + एव-भी। ह-अवश्य । श्रात्मन्धी-शुद्ध गुणग्राही । भवति- होता है। +च-और । ह-अवश्य । अस्य-इसकी । प्रजा- संतान । + एवमी । यात्मन्विनी-शुन्द यात्मावाली। भवति होती है। इसके पश्चात् । सावह । गायः गर्ग. गोत्री वालाकी। तूपणीम्-चुपचाप । श्रास होता भया । भावार्थ। हे सौम्य ! वह प्रसिद्ध गर्गगोत्रोत्पन्न बालाकी बोला कि हे राजन् ! इस हृदयाकाश विपे जो पुरुष है उसको मैं ब्रह्म मान कर उसकी उपासना करता हूं, ऐसा सुन कर वह प्रसिद्ध राजा अजातशत्रु बोला कि हे अनूचान, ब्राह्मण ! तुम क्या कहते हो, तुमको ऐसा नहीं कहना चाहिये, जिसको तुम ब्रह्म समझे हो वह ब्रह्म नहीं है, यह तो केवल जीवात्मा पराधीन है, मैं इसको ऐसा जानकर इसको उपा- सना करता हूं, जो कोई इसको ऐसा जान कर इसकी उपासना करता है वह अवश्य शुद्धगुणग्राही होता है, और उसकी सन्तति भी शुद्ध आत्मावाली होती है, ऐसा उत्तर पाकर बालाकी चुपचाप हो गया ॥ १३ ॥ मन्त्रः १४ स होवाचाजातशत्रुरेतावन्नू ३ इत्येतावद्धीति नैता- वता विदितं भवतीति स होवाच गार्ग्य उप त्वा यानीति ॥ पदच्छेदः। सः, ६, उवाच, अजातशत्रुः, एतावत्, न, इति, एता-
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