'अध्याय १ ब्राह्मण ५ १४७ . इसका । एवम्ही । रूपम्-रूप | अभवन्-होते भये । तस्मात् इसी कारण । एते-ये चागादि इन्द्रियाँ । एतेन इस प्राण के नाम से ही प्राणा: "प्राण" इति-ऐसा। आख्यायन्ते-कहे जाते हैं यानी प्राण के नाम करके ही पुकारे- जाते हैं । यः जो कोई । एवम्-इस प्रकार । वेद-आण की श्रेष्ठता को जानता है। स वह प्र णवित् पुरुष । यस्मिन् कुले-जिस कुल में। भवति उत्पन्न होता है । तत्-उस । कुलम् कुल.को । तेन-उसी नाम से । ह चाव-निश्चय करके । श्राचक्षते लोग कहते हैं। उ-और । या-जो । एवंविदा-ऐसे जाननेवाले के | + सह-साथ । स्पर्धते ईर्षा करता है । +सबह ।ह-अवश्य । अनुशुण्यति= सूख जाता है । + च-और । अनुशुष्य-सूखकरं ।ह एवं अवश्य अन्ततः अन्त में । म्रियते-नाश हो जाता है । इति ऐसा यह । अध्यात्मम्-अध्यात्मविषयक विचार है। भावार्थ। हे सौम्य ! अब प्राण की श्रेष्ठता को दिखलाते हैं, और व्रतं का. विचार करते हैं, यानी इन्द्रियों विषे कौन इन्द्रिय श्रेष्ठ है, हे सौम्य ! यह संसार में प्रसिद्ध है कि जब प्रजा- पति ने वागादि कर्मेन्द्रियों को उत्पन्न किया तब पैदा की हुई इन्द्रियाँ आपस में ईर्षा करती भई, वाणी ऐसा व्रत धारण करती भई कि मैं सदा बोलती रहूँगी, नेत्र ऐसा व्रत धारण करता भया कि मैं सदा देखता रहूँगा, श्रोत्र ने ऐसा.. व्रत धारण किया कि मैं सदा सुनता रहूँगा, इसी प्रकार और और इन्द्रियों ने भी ऐसा व्रत धारण किया तब उन सबको साह कार पाकर श्रम में मृत्यु होकर उन सबको पकड़ लिया, यानी उनको उनके कार्य में थका दिया, और उनके निकट .
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