अध्याय १ ब्राह्मण १ 1
अस्थीनिम्हड्डियाँ। नक्षत्राणि-नक्षत्र हैं। मांसानि-मांस । नभः आकाशस्थ मेध हैं । उवध्यम्-उसका प्राधा पचा हुआ अन्न । सिकता: वालू है। गुदाः-उसकी अंतरी । सिन्धयः-नदी हैं। चौर । यत् जो । यकृत्-जिगर है। च-और । लोमानः फेफड़ा है । + ते-वै। पर्वताः पर्वत हैं। लोमानि-लोम । ओषधयःोपधि । च-और । वनस्पतयः वनस्पति है। च-ौर । पूर्वार्धः :-उस घोड़े का पूर्वार्ध । उद्यन्-निकलता हुआ सूर्य है। जघनार्ध: उसके पीछे का भाग । निम्लोचन्-अस्त होनेवाला सूर्य है। च-और । यत्-जो । + सावह । विजृम्भते-जमहाई लेता है । तत्वही । विद्योतते-विद्युत् की तरह चमकता है । यत्-जो । + सा वह । विधूनते-अंग को मारता है । तत्वही । स्तनयति-बादल की तरह गरजता है यत्-जो। + सः वह । मेहति-मूत्र करता है । तत्-वही । चर्पति बरसता है । अस्य-इसका । वाक्-हिनहिनाना। वाक्-शब्द । पव-ही है यानी इसके शब्द में आरोप किसी का नहीं है। भावार्थ । यज्ञकर्ता यज्ञ करते समय ऐसी दृष्टि रक्खें कि यज्ञिय घोड़ा प्रजापति है, उसका शिर प्रातःकाल है: क्योंकि दिन और रातभर में उषाकाल जो तीन बजे से पाँच बजे तक रहता है, अतिश्रेष्ठ है, यह बेला देवताओं का है, इस काल में जो कार्य किया जाता है वह अवश्य सिद्ध होता है। यज्ञ- कर्म में काल की श्रेष्ठता की आवश्यकता कही है। विना पवित्रकाल के यज्ञ की सिद्धि नहीं होती है, इस कारण उषा- काल की एकता यज्ञिय अश्व के शिर से की है, ऐसे घोड़े का