अध्याय २ ब्राह्मण ? १७३ . भया कि हे राजन् ! दर्पण में जो पुरुष है उस विषे जो प्रतिबिम्ब है, मैं उसको ब्रह्म समझ कर उसकी उपासना करता हूं श्राप भी ऐसा ही करें यह सुन कर राजा कहता है कि हे अनूचान, ब्राह्मण 1 ऐसी वात ब्रह्म विषे मत कहो, यह ब्रह्म नहीं है, जिसको तुम ब्रह्म समझ कर उपासना करते हो यह प्रकाशमान छायाग्राही वस्तु है, ऐसा जानकर मैं इसकी उपासना करता हूं। जो कोई अन्य पुरुष ऐसा ही जान कर इसकी उपासना करता है, वह भी प्रकाशवाला होता है, और इसकी संतान भी प्रकाशवाली होती है, और जिनके साथ वह सम्बन्ध करता है उन सबको प्रकाशमान करता है ॥१॥ - मन्त्र: १० स होवाच गाग्र्यो य एवायं यन्तं पश्चाच्छन्दो- ऽनुदेत्येतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्टा असुरिति वा अहमेतमुपास इति स य एतमेवमुपास्ते सर्वछ हैवास्मिल्लोक आयुरेति नैनं पुरा कालात्माणो जहाति ॥ पदच्छेदः। सः, ह, उवाच, गार्ग्यः, यः, एव, अयम् , यन्तम् , पश्चात् , शब्दः, अनुदेति, एतम् , एव, अहम् , ब्रह्म, उपासे, इति, सा, ह, उघाच, अजातशत्रुः, मा, मा, एतस्मिन्, संवदिष्ठाः, असुः, इति, वै, अहम् , एतम् , उपासे, इति,
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