पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१८१

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अध्याय २ ब्राह्मण १ १६५ अहम् में । ब्रह्मवहा । इति करके । उपासे-उपासना करता हूँ । इति-ऐसा। + श्रुत्वा-सुनकर । सः वह । ह-असिन्द । अजातशत्रुः अजातशत्रु राजा । उवाच-चोला कि । एत- स्मिन्-इस ब्रह्म विपे। मा मा संवदिष्टा: ऐसा मत कहो, ऐसा मत कहो । यःजो । + श्राकाशे श्राकाश बिपे । पूर्णम्-पूरा । अप्रवत्ति-क्रिया-रहित पुरुप है । अहम्-मैं । एतम्-ठसकी । वैन्ही । इति ऐसा समझ कर । उपासे-उपासना करता हूँ। एवम्-इसी प्रकार | + यःजो । + अन्या और कोई । उपा- स्ते-उपासना करता है । सा-वह । प्रजया-संतान करके । पशुभिः पशुओं करके । पूर्यते पूर्ण होता है । + च-और । अस्मात् इस । लोकात्-लोक से । अस्य-इसकी । प्रजा संतान । न-नहीं । उद्वर्तते-दूर की जाती है। भावार्थ। हे सौम्य ! फिर भी वह प्रसिद्ध गर्गगोत्र में उत्पन्न हुआ वालाकी कहता भया कि हे राजन् ! आकाश विषे जो पुरुष है उसी की मैं ब्रह्म करके उपासना करता हूँ, ऐसा सुनकर वह राजा अजातशत्रु ऐसा कहने लगा कि हे ब्राह्मण ! इस ब्रह्म विपे ऐसा मत कहो, यह ब्रह्म नहीं है, जिसको तुम ब्रह्म समझते हो, जो आकाश विपे पूरा और क्रियारहित पुरुष है, उसकी उपासना ऐसा समझ कर मैं करता हूँ, और जो कोई उसकी उपासना ऐसा ही समझ कर करता है वह संतान करके और पशुओं करके पूर्ण होता है, और उसकी संतान नष्ट नहीं होती है ॥ ५ ॥ मन्त्रः ६ स होवाच गाग्र्यो य एवायं चायौ पुरुष एतमेवाह - ..