। १६२ बृहदारण्यकोपनिपद् स० कि । एतस्मिन्-इस ब्रह्म विषे । मा मा संघदिष्टाः=ऐसा मत कहो, ऐसा मत कहो । + अयम यह । राजा-प्रकाशवाला । सोमः-चन्द्रमा। वै-निश्चय करके । वृहन्पाराडरवासाः इति: बढ़ा श्वेत वस्त्रधारी है ऐसी । अहम् मैं। एतम्-इसकी। एवम् अवश्य । उपासे ठपासना करता हूँ । + च-और । इति इस प्रकार । यःमो कोई । एतम्-इसकी । अहरहा-प्रतिदिन । उपास्ते-उपासना करता है। सःवह । सुतःप्रसुतःसोम यज्ञ का करनेवाला । भवति होता है। +च और । अस्य-ठसका। अन्नम्-अन्न । नभी नहीं। क्षीयते-चोणं होता है। भावार्थ । फिर वह प्रसिद्ध गर्गगोत्री वालाकी बोला कि जो चन्द्रमा विषे पुरुप है, उसी को में ब्रह्म समझकर उपासना करता हूँ, ऐसा सनकर वह अजातशत्रु राजा कहता भया कि इस ब्रह्म संवाद बिपे ऐसा कहना ठीक नहीं है, यानी यह ब्रह्म नहीं है, निस्मंदेह यह श्वेत वस्त्रधारी चन्द्रमा प्रकाशमान है, मैं इसकी उपासना ऐसा समझकर करता हूँ, और जो इसकी उपासना इसी प्रकार प्रतिदिन करता है, वह अपने घर में सोमयज्ञ का करनेवाला होता है, और उसके घर में कभी अन्न क्षीण नहीं होता है ।। ३ ॥ - मन्त्रः ४ स होवाच गायों य एवासौ विद्युति पुरुप एतमेवाह ब्रह्मोपास इति स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्संवदिष्टा- स्तेजस्वीति वा अहमेतमुपास इति स य एतमेवमुपास्ते तेजस्वी इ भवति तेजस्विनी हास्य प्रजा भवति ॥
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१७८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।