9 १५८ बृहदारण्यकोपनिषद् स० पदच्छेदः । दृप्तबालाकिः, ह, अनूचानः, गार्ग्यः, आस, सः, ह, उवाच, अजातशत्रुम् , काश्यम् , ब्रह्म, ते, वाणि, इति, सः, ह, उवाच, अजातशत्रुः, सहस्रम् , एतस्याम् , वाचि, दद्मः, जनकः, जनकः, इति, वै, अनाः, धावन्ति, इति ।। अन्वय-पदार्थ । ह-किसी समय किसी देश में । गार्ग्य: गगंगोत्र में उत्पन्न हुा । दृप्तवालाकिः तवालाकी नामक । अनूचान:-वेद का पढ़नेवाला । आस-रहता था । सा-वह । काश्यम् काशी देश के राजा | अजातशत्रुम् अजातशत्रु से । उवाच-कहता भया कि । तेन्यापके लिये । ब्रह्म ब्रह्म का उपदेश । ह-भली प्रकार । वाणिं करूँगा मैं । इति-ऐसा सुनकर । सा-वह । ह-प्रसिद्ध । अजातशत्रुःअजातशत्रु राजा । उवाच-चोला कि । एत- स्याम् इस । वाचि-वचन के बदले में। + ते-तेरे लिये। सहस्रम्-एक हज़ार गौवें ।वैअभी । दना देता हूँ। +किम्- क्यों । जनकः जनकः इति-जनक जनक ऐसा! + वदन्तः- पुकारते हुये । जना-सव मनुष्य । + तस्य-उसके । निक- दम्-पास । धावन्ति इति दौड़े जाते हैं। भावार्थ । हे सौम्य ! किसी समय गर्गगोत्र में उत्पन्न हुआ एक अहंकारी वेद का पढ़नेवाला बालाकीनामक ब्राह्मण था, वह एक दिन काशी के राजा अजातशत्रु के पास पहुँचा, और उससे कहा कि मैं आपके लिये ब्रह्मविद्या का उपदेश करूंगा, यह सुनकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और कहा हे ब्राह्मण ! तू धन्य है, ऐसा तेरे कहने पर मैं एक सहस्र गौ देता हूँ, ,
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१७४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।