. १.४८ वृहदारण्यकोपनिपद् स० जाकर उनको अपने काम से रोक दिया, इसी कारण वाणी अवश्य बोलते बोलते थक जाती है, नेत्र देखते देखते थक जाता है, श्रोत्र सुनते सुनते थक जाता हैं. हे सौम्य ! अब आगे उस व्रत को कहते हैं जो अखण्डित रहता है, है सौम्य ! वह श्रमरूप मृत्यु इस प्राण को नहीं पकड़ सका, जो यह इन्द्रियों में फिरनेवाला प्राण है उसके जानने की इच्छा सब इन्द्रियाँ करती मई, और उसके महत्व को जान- कर आपस में कहने लगी कि निस्संदेह यह प्राण हम लोगों में श्रेष्ठ है, जो चलता हुआ और नहीं चलता हुधा भी न कभी दुःखी होता है न कभी नष्ट होता है, यदि सबकी राय हो तो हम इसका ही रूप बन जाय, ऐमा सुनने पर वे सब इसके ही रूप हो गये, इसी कारण वे वागादि इन्द्रियाँ इसी प्राण के नाम से पुकारी जाती हैं, हे सौम्य ! जो कोई इस प्रकार प्राण की श्रेष्ठता को जानता है, वह जिस कुल में पैदा होता है वह कुल उसी के नाम से पुकारा जाता है, और जो कोई ऐसे प्राणवित् पुरुष के साथ कैप करता है वह सूख जाता है और सूख कर अन्त में नाश हो जाता है, हे सौम्य ! ऐसा यह अध्यात्मविषयक विचार है ॥२१॥ मन्त्रः २२ अथाधिदैवतं ज्वलिष्याम्येवाहमित्यग्निर्दः तप्स्या- म्यहमित्यादित्यो भास्याम्यहमिति चन्द्रमा एवमन्या देवता यथादैवत५ स यथैपां प्राणानां मध्यमः माण एव- मेतासां देवतानां वायुम्नॊचन्ति ह्यन्या देवता न वायुः सैपाऽनस्तमिता देवता यदायुः ।।
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