खाता बृहदारण्यकोपनिषद् स० करता है । वा-और । या जो । एताम् इसको । अक्षितिम्- अक्षिति । वेद इति जानता है । सः वही पुरुप । अक्षितिः अविनाशी है । हि-क्योंकि । इदम्-इस । अन्नम् अन्न को। धिया धिया बुद्धि से और । कर्मभिः कर्म से । + सा=वह । जनयते-उत्पन्न वरंता रहता है । यत् ह यदि ।+ सः वह अविनाशी पुरुप । एतत्-इस अन्न को । न=न ।.कुर्यात्-उत्पन्न करता तो।+तत्वह । अन्नम् अन्न । हम्यवश्य । क्षीयते-नाश जाता । + च-और । इतिजो ऐसा कहा गया है कि । सा वह । अन्नम् अन्न को। प्रतीकेन-मुख से। अत्तिः है । इति उसका भाव यह है कि । प्रतीकम्-प्रतीक का अर्थ । मुखम्-मुख है । इति इस लिये । एतत्-यह । मुखेन इति "मुखेन" ऐसा पद ! + उक्तम्-कहा है। चम्चौर । यः जो । इति-ऐसा । उक्तम् कहा गया है कि । सा=बह पुरुप । देवान् देवताओं को । गच्छतिप्राप्त होता है यानी देवयोनि को प्राप्त होता है । + चौर । सावही । ऊर्जम् दैवबल को। उपजीवतिप्राप्त होता है तो । इति-ऐसा कहना.। अपि- केवल । प्रशंसा-अन्न यज्ञ कर्म की प्रशंसा है। भावार्थ । हे सौम्य ! जो मंत्र ने ऐसा कहा है कि पिता ने मेधा और तप करके सात अन्न उत्पन्न किये हैं सो ठीक कहा है, मेधा ज्ञान है, और ज्ञान ही तप है, उससे पृथक् दूसरा कोई तप नहीं है, और जो मंत्र यह कहता है कि पिता ने एक अन्न सबके वास्ते उत्पन्न किया है, उसका भाव यह है कि वह अन्न सब प्राणियों करके खाया जाता है, यानी उसमें सबका भाग हैं जो कोई इस अन्न को केवल अपना ही समझकर .
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