.. तत्, १४० बृहदारण्यकोपनिषद् स० के रूप में संसार विषे विद्यमान रहता है, और उस पुत्र में ही सब वाक्, प्राण, मन आदि देवता मरगाधर्म से रहित होते हुये प्रवेश करते हैं ।। १७ ॥ मन्त्रः १८ पृथिव्य चैनमग्नेश्च देवी वागाविशति सा बै देवी वाग्यया यद्यदेव वदति तत्तद्भवति ।। पदच्छेदः। पृथिव्यै, च, एनम् , अग्नेः च, देवी, बाग, प्राविशति. सा, वै, दैवी, वाग, यया, यत् , यत्, एव, वदति, तत् , भवति । अन्वय-पदार्थ। पृथिव्यै-पृथिवी अंश से पृथक् । चोर । अग्नेः पग्नि अंश से। च-भी पृथक् । + यदा-जय । देवी-देवी शन्युिनः । वागवाणी । एनम्-इस कृतकृत्य पुरुष में । याविशति-प्रवेश करती है । + तदा तव । वै-निश्चय करके । सा=यकी । देवी- देवी । वार-वाणी है । यया-जिस करके । यत् यत्नो जो। + पुरुषःबह पुरुष । वदनि-कहता है । तत् तत् एव-वाही वही । भवति होता है। भावार्थ । हे सौम्य ! यह दैवीशक्तियुक्त वाणी पृथिवी अंश और अग्नि अंश से पृथक् होकर जब इस कृतकृत्य पुरुप में प्रवेश करती है तभी निश्चय करके दैवी वाणी है जिस करके वह पुरुष जो जो कहता है वह वह सब सत्य होता है ॥ १८ ॥
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