अध्याय १ ब्राह्मण ५ १२५ प्राणाप्राण । अविज्ञात-अविज्ञात है ।+ च और । प्राण:- वह प्राण ही ।तत्-अविज्ञात । भूत्वा होकर । एनम्माणवेत्ता पुरुष की । अवति-रक्षा करता है। भावार्थ । हे सौम्य ! जो कुछ नहीं जाना गया है, वही प्राण का स्वरूप है, क्योंकि प्राण अविज्ञात है, और यही प्राण अविज्ञात होकर प्राणवेत्ता की रक्षा करता है ॥ १०॥ मन्त्र: ११ तस्यै वाचः पृथिवी शरीरं ज्योतीरूपमयमग्निस्तद्या- वत्येव वातावती पृथिवी तावानयमग्निः॥ पदच्छेदः। तस्यै, वाचः, पृथिवी, शरीरम् , ज्योतीरूपम् , अयम् , अग्निः, तत् , यावती, एव, वाक्, तावती, पृथिवी, तावान् , अयम्, अग्निः ॥ . अन्वय-पदार्थ । तस्यै-उस । वाच: वाणी का । शरीरम्-शरीर । पृथिवी- पृथिवी है । + चोर । ज्योतीरूपम् प्रकाशात्मकरूप । अयम् यह प्रत्यक्ष । अग्नि:-अग्नि है । तत्-तिसी कारण । थावती जितनी दूर तक । पृथिवी-पृथिवी है । तावत्-उतनी दूर तक । वाक्-वाणी है। + च-और । यावत्-जितनी दूर तक । अग्नि: अग्नि है । तावत्-उतनी ही दूर तक । वाक्य वाणी का रूप भी है। भावार्थ। हे सौम्य ! वाणी का शरीर पृथिवी है, और वाणी का
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