१०२ बृहदारण्यकोपनिपद् स० देता है । तेन-उस करके । पशनाम्-पशुओं का । + सा=बह । + लोकः प्राश्रय । + भवति होता है । यत्-गी। अस्य- इसी गृहस्थी के | गृहेपु-घरों में। श्वापदा:चौपाये । वयांसि- पती । श्रापिपीलिकाभ्यःौर चींटी तक । उपजीवन्ति-अन्न पाकर जीते हैं । तेन उसी काके ।+ साम्यह। तपाम-चौपायों आदिकों का । लोकाम्याश्रय । + भवति होता है। श्रथ ह वै-ौर अवश्य ही। यथा-से । + प्रत्येकाहर एक पुरुष । स्वाय-अपने । लोकाय देह प्रविष्ट जीवात्मा के लिये । श्ररि- टिम् अविनाशिरव को। इच्छेत् इच्छा करता है। एवम् = वैसे ही । एवं विदे-ऐसे जाननेवाले के लिये भी । सर्वाणि सय । भूतानि-प्राणी देवतादि । + तस्य-इसके । श्ररिप्टिम्-प्रवि. नाशिस्व को। इच्छन्ति-चाहते हैं । + चोर । तत्-सोई। एतत्-यह यज्ञादिकर्म । विदितम्=पंचमहायज्ञादि प्रकरण में कहा गया है । + च-और । + तत् एवम्चही। + इह-यहाँ पर भी । मीमांसितम् कर्तव्यरूप से विचार का विषय हुमा भावार्थ। हे सौम्प ! गृहस्थाश्रमी पुरुप सब प्राणियों का प्राश्रय है, वह पुरुष जो होम करता है, और जो नित्यप्रति यज्ञ करता है, वह उसी कर्म करके देवों का आश्रय होता है, और जो पठन पाठन करता है वह उस करके ऋषियों का आश्रय होता है, और जो पितरों के लिये पिंडा पानी देता है और जो संतान की इच्छा करता है तो वह उस पिंडदान और संतान करके पितरों का आश्रय होता है, और जो अभ्यागतों को अपने घर में ठहराकर जल भोजनादि देता है उस जल वस्त्र अन्न करके वह मनुष्यों का श्राश्रय होता है, और जो पशुओं को घास फूस देता है, वह उस करके . .
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