पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/११५

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1 अध्याय १ ब्राह्मण ४. . जाननेवाला । अपि-भी। महत बड़े । पुण्यम्-पुण्य । कर्म कर्म को। करोति करता है । +परन्तु-परन्तु । अस्य-उसका । तत्-वह फल । ह एव अवश्य । अन्ततः भोगने के पीछे। क्षीयते नष्ट हो जाता है। + अत:-तिस कारण । आत्मानम् लोकम् एव-अपने प्रात्मा की ही । उपासीत-उपासना करे यानी अपने श्रात्मा को जाने । सम्बह । य: जो । आत्मानम् एव लोकम्-अपने ही प्रात्मा की । उपास्ते-उपासना करता है। अस्य ह-उसका ही । कर्म-कर्म-फल । न ह कभी नहीं । क्षीयते-क्षीण होता है । हि-क्योंकि । अस्मात् हि एव-इसही। श्रात्मनः आस्मा से । यत् जो । यत्-जो । + सम् वह । कामयते-चाहता है । तत् तत्-उस उसको । सुजतेप्राप्त करता है। भावार्थ । हे सौम्य ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रवों में ब्राह्मण अग्निरूप ब्रह्म होता भया, वही मनुष्यों में ब्राह्मण होता भया, क्षत्रियों के मध्य देवक्षत्रिय होता भया, वैश्यों के मध्य देववैश्य होता भया, शूद्रों के मध्य शूद्र होता भया, इसलिये देवताओं के मध्य अग्नि विषे यज्ञ करनेवाले कर्मफल की इच्छा करते हैं, क्योंकि मनुष्यों के मध्य ब्राह्मण में यज्ञकर्म का कर्ता और यज्ञकर्म का अधिकरण अग्निरूप ब्राह्मण ही होता भया है और जो अपने आत्मा को न जानकर इस लोक से कुँच कर जाता है, वह अज्ञानी अपने आत्मानन्द को नहीं प्राप्त होता है, जैसे गुरु से न पढ़ा हुआ वेद कर्म के फल को नहीं देता है, अथवा जैसे नहीं की हुई; खेती फल को नहीं देती है, और जिस कारण इस लोक में अपने