८६ बौद्ध-संघ के भेद इन नकारों द्वारा प्रतिपादित माध्यमिक-मार्ग निर्वाण लक्ष्य पर पहुँचता है, निर्वाण संपूर्ण अनिरुद्धता की आदर्श अवस्था है। यह आदर्श-अवस्था न स्वर्ग में है और न सुखावती व्यूह में। उस में शोक नहीं है । आनन्द की प्रचुरता है। इस अवस्था का अनु. भव हमें अपने प्रतिदिन के जीवन में करना चाहिए । नागार्जुन के मत में,संसार और निमोण में कोई भेद नहीं है। पाँचों स्कन्धों से ही शरीर की उत्पत्ति होती है। और पाँचों स्कन्धों की अभि- व्यक्ति और अनभिव्यक्ति ही संसार है; क्योंकि सब पदार्थ न उत्पन्न होते हैं और न नष्ट ही होते हैं। इसलिए संसार में और निर्वाण में कोई भेद हो नहीं है इस दुःखपूर्ण संसार में निर्वाण पाना अति कठिन है, पर असम्भव नहीं। अगर हमारे मनमें दुःख और आपत्ति उत्पन्न होती है तो हमें जान लेना चाहिए कि हमारे मन में किसी प्रकार की बुराई है । इसलिए बुद्ध ने संवृत्तिक सत्य और पारमार्थिक सत्य ये दो बातें बताई हैं। संवृत्तिक सत्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए बहुत ही आवश्यक है और पारमार्थिक सत्य के बिना मोक्ष कभी प्राप्त हो ही नहीं सकता। यदि हम संवृत्तिक का आश्रय न लें तो परमार्थ नहीं मिल सकता और बिना परमार्थ के मोक्ष भी नहीं मिल सकता। तथागत न तो स्कन्ध है और न उससे भिन्न । उसमें स्कन्ध नहीं है और न वह स्कन्धों में । यदि बुद्ध का अस्तित्व स्कन्धों के कारण है तो उसमें अपना स्वभाव नहीं हो सकता । जब उसमें अपना स्वभाव नहीं है, तो उसका परभाव कैसे हो सकता है किन्तु
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