बुद्ध और बौद्ध धर्म 1 , अव गौतम अकेला निरञ्जरा नदी के तट पर भ्रमण करने लगा । उन दिनों एक कृषक कन्या सुजाता नित्य प्रातःकाल उसे भोजन दे आती थी। और वह प्रसिद्ध बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर विचार किया करता था। वह बहुत समय तक विचार करता रहा। उसके अतीत जीवन के दृश्य उसके सामने आते रहे । इन्द्रियों की वासना आदि ने उसे ललचाया। जो विद्या उसने अबतक प्राप्त की थी, वह उसे व्यर्थ-सी मालूम हुई और जो तपस्याएं उसने की थीं, वह भी निष्फल ज्ञात हुई । बराबर उसकी यह इच्छा होती रही कि वह अपनी प्रिय पत्नी के पास, अपने छोटे बच्चे के पास जो अब ६ वर्ष का हो गया होगा, अपने माता-पिता के पास और अपनी राजधानी को लौट जाय, लेकिन उसे संतोष न होता था। वह सोचता था कि जिस काम में अपने-आपको लगाया है उसका क्या होगा ? वह चिरकाल तक इन विषयों पर सोचता रहा । अन्त में उसके सब सन्देह दूर हुए और सत्य का प्रकाश उसकी आँखों के सामने चमकने लगा। यह वह सत्य था-जिसे न तो विद्या और नतपस्या ही सिखा सकती है। उसने कोई नया तत्त्व नहीं जाना और न कोई नया ज्ञान प्राप्त किया; किन्तु उसके धार्मिक स्वभाव और दयालु हृदय ने यह बता दिया कि पवित्र जीवन, प्रेम और दया का भाव सबसे उत्तम तपश्चर्या है। प्राणी-मात्र से प्रेम करना आत्मोन्नति का सबसे उत्तम मार्ग है-यह नई बात उसने मालूम की । और उसने अपने आपको 'बुद्ध' के नाम से प्रकट किया।
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