बुद्ध और बौद्धधर्म ८६ जगत् में , (१) असंस्कृत शून्यता- -आन्तरिक अथवा परमार्थ इस शून्यता के नियम का प्रयोग होता है। (२) संस्कृत शून्यता-इसका प्रयोग संवृत्तिक अथवा व्याव- हारिक सत्तावाले जगत् में होता है। भावात्मक दृष्टि से जगत् की परमार्थ अवस्था पर विचार करने पर, नागार्जुन और उनके अनुयायीगण भारतवर्ष, चीन और जापान में अत्यन्त शून्यता के सिद्धान्त पर पहुँचे; क्योंकि जिसकी रुद्धता है वह जगत् की सब वस्तुओं के रूपान्तर विकाश और परिवर्तन का विशेष नियम नहीं माना जा सकता। सर्व च युज्यत तस्य, शून्यता यस्य युज्यते। सर्व न युज्यते तस्य, शुन्यता यस्य न युज्यते ।। शून्यता होने से सब-कुछ सम्भव हो सकता है और शून्यता न होने से कुछ भी सम्भव नहीं है। संस्कृत शून्यता का अर्थ विशेषता का अभाव है। अथवा असत्ता की दृष्टि से व्यक्तियों का नास्तित्व है। कोई भी ऐसा धर्म नहीं है जो प्रतीत्य से उत्पन्न न हुआ हो, और ऐसा कोई भी धर्म नहीं है जोकि निरन्तर परिवर्तनशील न हो अर्थात् शून्य न हो। जो-कुछ प्रतीत्य से उत्पन्न होता है वह शून्य है क्योंकि वह कारण नियम से बद्ध है। अतः जिनमें विशेष अथवा स्वभाव नहीं है वह शून्य है। भावात्मक दृष्टि से यह संवृत्तिक वस्तुओं अथवा संस्कृत धर्मों की निरन्तर परिवर्तनशील अवस्था है, अर्थात वह
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