बौद्ध-संघ के भेद . उत्पन्न करते हैं, नामरूप से पड़ायतन उत्पन्न होते हैं । इन तीनों के संयोग से स्पर्श होता है, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा आदि होते हैं । ये नदी की धारा के समान प्रवाहित होते रहते हैं; किन्तु इनके अन्त में कोई तल या सार नहीं होता । इसलिए धर्मों को न सत और न असत कह सकते हैं । न तो सत्ता को सत्य कह सकते हैं और न विनाश को ही सत्य कह सकते हैं। इसी कारण इस सिद्धान्त का नाम माध्यमिक सम्प्रदाय पड़ा है। भाव अभाव केवल संवृत्ति सत्य है, ऐसे ही सब धर्म हैं। उसमें परमार्थ सत्य कुछ नहीं है और न कोई चीज है। इस सिद्धान्त में भी सदाचार नीति उनकी ही ऊँची है, जितनी कि अन्य भारतीय सिद्धान्तों में। शून्यता का अर्थ अभाव नहीं है। व्यावहारिक जगत् की निर- न्तर परिवर्तनशील अवस्था का नाम शून्यता है, अथवा वह विश्व के आन्तरिक रूप की केवल अनिरुद्धता है। जगत की सत्यता निर्दोष दर्पण के समान है । जिसमें प्रत्येक वस्तु वैसी ही दिखाई देती है, जैसी कि वह वास्तव में है ; जैसे दर्पण उस वस्तु से जोकि उसमें दिखाई देती है, अलग रहता है- वैसे ही बोधिसत्व उन सबसे जो देखता है, निश्चिन्त नहीं होता है। उसका चित्त क्लेश और राग से सर्वथा मुक्त रहता है । न उसे सुन्दरता देखकर अनुराग होता है, न कुरूपता देखकर द्वेप। वह अत्यन्त शून्यता की अथवा सम्पूर्ण अनिरुद्धता की अवस्था में रहता है...शून्यता कई दृष्टियों से देखी जा सकती है।
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