बुद्ध और बौद्ध-धर्म मिथ्या अहंकार का नाम अविद्या है । खूब विचार करने पर ज्ञात होगा कि भावात्मक सत्ता का लवलेश भी है। यदि अविद्या न होती तो संस्कार भी न होते, संस्कार न होते, तो विज्ञान भी न होता। इसी प्रकार औरों को भी समझना चाहिये । अविद्या के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि वह संस्कारों को उत्पन्न कर रही है, और न संस्कारों के सम्बन्ध में ही कह सकते हैं कि वह अविद्या से उत्पन्न हुए हैं। अविद्या होने से संस्कार होते हैं और संस्कार होने से विज्ञान ! इसी प्रकार सब दूसरी वस्तुओं को भी समझना चाहिए । प्रतीत्य समुत्पाद के इस प्रतिपादन को हेतूपनिबन्ध कहते हैं। इसका अर्थ है-पूर्व हेतु के होने पर उत्तर हेतु का होना । इसे प्रत्ययोपनिबन्ध भी कहते हैं। चार महाभूत, और विज्ञान के समवाय अर्थात् मेल से मनुष्य बनता है। पृथ्वी के कारण शरीर ठोस है, जल से शरीर में चर्बी है, अग्नि से पाचन है, वायु से साँस लेता है, आकाश से शरीर छिद्रावकाश है और विज्ञान से उसमें मानसिक चेतना है। इन सबके संयोग से मनुष्य बना है, परन्तु इनमें से किसी को मालूम नहीं कि हम क्या-क्या कर रहे हैं। इनमें कोई भी वास्त- विक तत्व या सत्तावान या श्रात्मा नहीं है । अविद्या के ही कारण इन्हें सत्तावाला कहते हैं और मोह उत्पन्न हो जाता है । अविद्या से राग-द्वेष, मोह के संस्कार पैदा होते हैं। इनसे विज्ञान और चार स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । ये चारों महाभूतों के साथ नामरूप
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