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बुद्ध और बौद्ध धर्म
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पंचों ने इन दसों आज्ञाओं को अस्वीकार किया और वैशाली के भिक्षुओं के अनुकूल अपना मत दिया । केवल छठी आजा के विषय में किसी विशेष अवस्था के अन्दर आज्ञा दी। इस सभा में ७०० भितु सम्मिलित किये गये, लेकिन विरोधी-दल वालों ने पंचों के निर्णय को नहीं माना । यद्यपि निर्णायक पंच लोग बहुत वृद्ध, विद्वान् , समर्थ और पूज्य लोग थे, लेकिन अधिक लोग उनके विरोधी हो गये और उत्तरी बौद्ध-संघ पूर्वी बौद्ध-संघ से पृथक् होगया। बौद्ध-धर्म की दो भिन्न-भिन्न शाखायें होगई- एक चीन, नेपाल और तिब्बत के उत्तरी वौद्ध और दूसरे लंक्का, बर्मा और स्याम के दक्षिणी बौद्ध लोग । एक स्थविर कहलाते थे और दूसरे महासांधिक । दोनों सम्प्रदायों के सिद्धान्तों में सब से बड़ा विरोध यह था स्थविरों का यह कहना था कि बुद्ध होने की शक्ति उद्योग से ही प्राप्त हो सकती है । लेकिन महा- सांधिक कहते थे कि प्रत्येक प्राणी में वह शक्ति जन्म ही से होती है और वह शनैः-शनै क्रमशः विकास को प्राप्त होती है । दक्षिणी सम्प्रदाय वालों के ग्रन्थ हीनयान और उत्तरी सम्प्रदाय वालों के ग्रन्थ महायान के नाम से प्रसिद्ध हुए। आगे चलकर स्थविरों का अड्डा काश्मीर में रहा और महासाधिक सम्प्रदाय वालों का मगध की राजधानी में रहा। विचार की बात यह है कि प्रत्येक धर्म में जब नई प्रणालियाँ चलती हैं, तो वह चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, उनका स्वीकृत होना बाहरी घटनाओं के बन्धन पर है।

ईसाई-धर्म में विकास के प्रारम्भ में,जब सन्नाट कनस्टेण्टाइन