५६ बौद्ध-संघ लिये जाते थे । जबतक बुद्ध जीवित रहे, तबतक प्रव्रज्या, सम्पदा, उपसम्पदा आदि संस्कार अपने हाथों से करते थे । हम कह चुके हैं कि सबसे पहले ५ भिक्षुओं ने प्रव्रज्या ली थी। इसके बाद जब संघ की वृद्धि हुई तो बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्यों को प्रव्रज्या, उप- सम्पदा, सम्पदा आदि संस्कार करने का अधिकार दे दिया । जो स्त्री और पुरुष उपसम्पदा ग्रहण करना चाहते थे उनका सबसे पहले मुंडन किया जाता था और एक पीला वन उन्हें पहनने को दिया जाता था। और फिर वह पुरुष या षी जिनका कि यह संस्कार किया जाता था उकडूं बैठकर कहता था-अहं बुद्धं शरणं गच्छामि, अहं धर्मं शरणं गच्छामि, अहं संघं शरणं गच्छामि । पीछे से उपसम्पदा की एक नई विधि निकाली गई प्रथम उपाध्याय से और बाद में प्राचार्य से उपसम्पदा प्रहण की जाने लगी। प्राचार्य का दर्जा बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता था। आचार्य से उपसम्पदा ग्रहण करनेवाले को अन्तेवासी कहा जाता था। उपसम्पदा ग्रहण करने के १० वर्ष बाद सब तरह योग्य होने पर आचार्य बन सकता था। जब कोई आदमी भिक्षु की दीक्षा लेने के लिए प्राचार्य के पास आता था तो वह अपने वस्त्र इस ढङ्ग से पहनता था कि एक कन्धा खुला रहे । वह आचार्य के सामने उसके चरणों में तीन बार प्रणाम करता और कहता-हे भगवन् ! आप मुझे अपना अन्तेवासी बनाइये । जब आचार्य स्वीकार कर लेते तो भिक्षाओं की एक परिपद् वैठती थी जोकि उसकी परीक्षा लेती थी। यदि वह प्रश्नों का ठीक तरह शान्ति से
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